By
Maulana Wahiduddin Khan

Soulveda

परमेश्वर की  खोज का मापदंड यह है कि एक बार जब आप उसे पा लेते हैं, तो आप पूरी तरह शांत और संतुष्ट हो जाते है। 1946 में ऑस्ट्रियाई न्यूरोलॉजिस्ट और मनोचिकित्सक विक्टर एमिल फ्रैंकल (1905-1997) ने ‘मैंस सर्च फॉर मीनिंग’ (Man’s Search for Meaning) नामक एक पुस्तक लिखी और वर्षों से इसी समान शीर्षक के साथ कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। प्रिंटिंग प्रेस के तीन सौ से अधिक वर्षों के दौरान इसी तरह की अरबों पुस्तकों को विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया गया है और यदि एक सामान्य शीर्षक इन सभी पुस्तकों को दिया जाए, तो यह बिना किसी संदेह के ‘अर्थ की खोज में’ होगा। इंसान स्वभाव से जीवन के अर्थ का प्यासा है। हर कोई अपने सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करता है, क्योंकि हर कोई एक जिज्ञासु ज़हन के साथ पैदा होता है और इसी तलाश के परिणामस्वरूप इस विषय पर काल्पनिक और ग़ैर-काल्पनिक दोनों शैलियों में बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन सभी का केंद्रीय विषय सत्य की खोज है।

जब कोई व्यक्ति परिपक्वता की उम्र तक पहुँचता है, तो उसकी पहली चिंता अपनी जीविका कमाना होती है। वह विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ करता है या विभिन्न प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में संलग्न होता है और जब वह किसी काम में व्यस्त हो जाता है, तो वह कुछ समय के लिए संतुष्ट हो जाता है। फिर धीरे-धीरे एक समय आता है, जब उसे पता चलता है कि उसकी नौकरी उसे वह नहीं दे रही है, जो वह ढूँढ रहा था। निश्चित रूप से उसका काम उसे रोटी तो देता है, लेकिन जैसा कि यीशु मसीह ने कहा था— “मनुष्य अकेले रोटी से नहीं जी सकते (मत्ती 4:4)।” रोटी कमाना हर किसी की पहली ज़रूरत होती है, लेकिन ‘रोटी’ केवल किसी की शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा तो कर सकती है, लेकिन यह बौद्धिक संतुष्टि देने में विफल रहती है। यह आज के ज़माने में लोगों की झुंझलाहट और निराशा का मुख्य कारण है।

बिग बैंग सिद्धांत के  अनुसार, ब्रह्मांड लगभग 13 अरब वर्ष पहले अस्तित्व में आया। इस हक़ीक़त के सामने आने से सभी लोग सोचते हैं— ‘अरबों साल पहले मेरा इस विशाल ब्रह्मांड में कोई अस्तित्व नहीं था। फिर मैं पैदा हुआ और प्रकृति ने मुझे दुनिया की जनसंख्या का हिस्सा बनाया।’ लगभग हर व्यक्ति, सचेत या असचेत रूप से, अपने अस्तित्व के बारे में जानने के लिए व्याकुल रहता है कि वह कैसे और क्यों पैदा हुआ। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपने अस्तित्व पर अकसर विचार करते हैं, जबकि कुछ नहीं करते। जब एक व्यक्ति पैदा होता है, तो वह तुरंत अपने आपको ऐसी दुनिया में पाता है, जहाँ एक जीवन-समर्थन प्रणाली (life support system) है, जिसे उसने नहीं बनाया है। फिर उसे महसूस होता है कि प्रकृति में पूरी टेक्नोलॉजी छुपी हुई है। यह टेक्नोलॉजी इंसानों की बाद के ज़माने की खोज बनी, जिसे विकसित करके नई सभ्यताएँ अस्तित्व में आईं।

फिर आदमी ख़ुद से सवाल करता है— इस जीवित नाटक के पीछे कौन है? क्या रिश्ता है मेरे और उस शानदार कलाकार के बीच? इसके अलावा मृत्यु का सवाल है— क्यों धार्मिक शब्दावली को ‘ईश्वर’ के रूप में व्यक्त किया जाता है? यदि हम इस संबंध को स्वीकार करते हैं, तो हम कह सकते हैं कि वास्तव में हर कोई ईश्वर की तलाश में है। यह परमेश्वर ही है, जो सभी घटनाओं को अर्थ देता है और परमेश्वर को खोजने के बाद सब कुछ ठीक हो जाता है।

एक बार मैं भीड़ में था, जहाँ मैंने एक छोटे बच्चे  को उत्सुकता से इधर-उधर भागते हुए देखा, क्योंकि वह अपनी माँ से अलग हो गया था। वह रो रहा था और लगातार पूछ रहा था— “मेरी माँ कहाँ है?” जब उसे अपनी माँ मिली, तो उसकी माँ ने उसे अपनी बाँहों में ले लिया। तुरंत लड़के ने रोना बंद कर दिया और शांत व संतुष्ट हो गया।

यह घटना मनुष्य के मामले को दर्शाती है। हर कोई— जाने-अनजाने में— ईश्वर की तलाश में है। जब वह उसे पाता है, तो वह शांत और संतुष्ट हो जाता है, लेकिन इस खोज के दौरान अकसर वह विभिन्न चीज़ों के पीछे भागता है और उसे बहुत जल्द एहसास हो जाता है कि उसे वह नहीं मिला है, जो वह खोज रहा था। यह मानव जाति के पूरे इतिहास में लगभग हर इंसान के लिए सच हुआ है। उनके लिए परिपक्व विचार के बाद फिर से ध्यान केंद्रित करके प्रयास करना आवश्यक है।

हर व्यक्ति की ज़िंदगी दो भागों से मिलकर बनी होती है। पहला भाग एक कॉमेडी होता है, लेकिन अगर इंसान अपने आपको सही मार्ग पर नहीं लाता, जो उसे ईश्वर की ओर ले जाएगा, तो दूसरा भाग एक ट्रेजेडी का रूप धारण कर सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ‘ईश्वर’ कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जिसे बाहर से बताया जाए। यह अपनी स्वयं की खोज है। ईश्वर को केवल ख़ुद इंसान ही खोज सकता है। सिर्फ़ खोजा हुआ ईश्वर ही आपको विश्वास दे सकता है। अगर आप अपनी ज़िंदगी को अर्थपूर्ण बनाना चाहते हैं, तो आपको इस सवाल को प्राथमिकता देनी होगी। यह केवल आपके अध्ययन और ध्यान देने से होगा। ईश्वर को पाने का मापदंड यह है कि एक बार जब आप उसे पा लेते हैं, तो आप पूरी तरह से शांत हो जाते हैं, जैसा कि ऊपर उल्लिखित घटना में छोटा बच्चा शांत हो गया था।

 

यीशु मसीह ने कहा था— “खोजो और तुम पाओगे।” (मत्ती 7:7) यह इतना धार्मिक नहीं है, जितना यह प्रकृति का नियम है, लेकिन खोज की अंतिम सफलता के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त ईमानदारी है। वास्तव में जो अपनी खोज में ईमानदार है, वह निश्चित रूप से अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाएगा।

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