By
Maulana Wahiduddin Khan
स्रोत: मई, 2021

उलेमा-ए-तफ़्सीर का कहना है कि क़ुरआन की तफ़्सीर का पहला ज़रिया ख़ुद क़ुरआन है और क़ुरआन की तफ़्सीर का दूसरा ज़रिया वे हदीस को क़रार देते हैं।

मसलन— सूरह फ़ातिहा में है— ग़ईरिल मग़ज़़ूबी अलैहिम वलज़्ज़ाल्लीन (1:7) यानी उनका रास्ता नहीं, जिन पर तेरा ग़ज़ब हुआ और न उन लोगों का रास्ता, जो रास्ते से भटक गए। यहाँ सवाल है कि उनसे मुराद कौन लोग हैं। हदीस-ए-रसूल से मालूम होता है कि ‘मग़ज़ूबी अलैहिम’ से मुराद यहूद हैं और ‘ज़ालेन’ से मुराद नसारा। (मुसनद अहमद, हदीस नंबर 19,381)

इसी तरह दूसरी आयत (8:60) की तफ़्सीर में मज़्कूरा हदीस को भी बिलकुल लफ़्ज़ी मायने में ले लिया जाए तो इस्लाम ऐसी साइकल की मानिंद बन जाएगा, जिसका हैंडल कस दिया गया हो और वह साइकल दाएँ-बाएँ घूम नहीं सकती।

इसी तरह क़ुरआन में ज़िक्र है— “और उनके लिए जिस क़द्र तुमसे हो सके तैयार रखो क़ुव्वत।” ( 8:60) यानी यहाँ क़ुव्वत से क्या मुराद है? इस सिलसिले में हदीस में आया है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया— “जान लो कि क़ुव्वत से मुराद तीरंदाज़ी है, जान लो कि क़ुव्वत से मुराद तीरंदाज़ी है, जान लो कि क़ुव्वत से मुराद तीरंदाज़ी है।” (सही मुस्लिम, हदीस नंबर 1,917)

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ताहम इन मसादिर (sources) के साथ एक और चीज़ इंतिहाई ज़रूरी है और वह है तफ़क्कुह (हिक्मत-ओ-बसीरत)। अगर तफ़क्कुह न हो तो आदमी पहले ज़रिये और दूसरे ज़रिये का माहिर होने के बावजूद क़ुरआन की दुरुस्त तफ़्सीर न कर सकेगा। मसलन— पहली आयत (फ़ातिहा, 1:7) की तफ़्सीर में मज़्कूरा हदीस में सिर्फ़ आधी बात है। मुकम्मल बात एक दूसरी हदीस को मिलाने से समझ में आती है। एक दूसरी हदीस में उम्मत-ए-मुस्लिमा के बारे में आया है— “तुम ज़रूर पिछली उम्मतों की पैरवी करोगे, क़दम-ब-क़दम , यहाँ तक कि अगर वह किसी गोह के बल में दाख़िल हुए हैं तो तुम भी ज़रूर उसमें दाख़िल हो जाओगे।” हमने कहा— “ऐ ख़ुदा के रसूल, यहूद व नसारा?” आपने कहा— “और कौन!” (सही अल-बुख़ारी, हदीस नंबर 7,320)

इसका मतलब यह है कि यहूद और नसारा ने बिगाड़ पैदा होने के बाद जो कुछ किया, वही सब मुसलमान भी बाद के ज़माने में करेंगे। इन दोनों हदीसों को सामने रखकर ग़ौर किया जाए तो यह मालूम होता है कि आयत में ‘मग़ज़ूब’ और ‘ज़ाल्लीन’ से मुराद वह लोग हैं, जो अपने ज़वालयाफ़्ता ज़हनीयत की वजह से ख़ुदा की नाराज़गी का शिकार हो जाते हैं। क़दीम ज़माने में यहूद-ओ-नसारा ने ऐसा किया था, बाद के ज़माने में उम्मत-ए-मुहम्मदी पर ऐसा वक़्त आ सकता है।

इसी तरह दूसरी आयत (8:60) की तफ़्सीर में मज़्कूरा हदीस को भी बिलकुल लफ़्ज़ी मायने में ले लिया जाए तो इस्लाम ऐसी साइकल की मानिंद बन जाएगा, जिसका हैंडल कस दिया गया हो और वह साइकल दाएँ-बाएँ घूम नहीं सकती। हक़ीक़त यह है कि दूसरी आयत की यह तफ़्सीर एक ज़मानी तफ़्सीर है, न कि अब्दी तफ़्सीर। अगर उस तफ़्सीर को अब्दी तफ़्सीर क़रार दिया जाए तो बाद के अदवार में मुसलमानों ने फ़ौजी क़ुव्वत के लिए जो नए-नए इज़ाफे़ किए, वह सब ग़ैर-इस्लामी क़रार पाएँगे या कम-से-कम यह कि बदलते हुए ज़माने के लिहाज़ से अपनी हिफ़ाज़त की क़ुव्वत के लिए क़ुरआन से हटना ज़रूरी होगा, वरना हम अपने दौर के लिहाज़ से अपने को ताक़तवर नहीं कह सकते।

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QURANIC VERSES1:1-78:7
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