अपने लिए पूरा, दूसरों के लिए अधूरा
"आज मैं तुम्हें अच्छे हाल में देख रहा हूँ, लेकिन मुझे डर है कि कल तुम पर ऐसा दिन आएगा जिसका अज़ाब (दंड) सबको अपने घेरे में ले लेगा।" (सूरह हूद, 11:84)
यह पैग़ाम हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम का था, जो उन्होंने लगभग साढ़े तीन हज़ार साल पहले मदयन की क़ौम को दिया।
मदयन, प्राचीन अरब में बहर-ए-अहमर (Red Sea) के किनारे बसा हुआ एक शहर था। हज़रत इब्राहीम (1985–2160 क़बल मसीह) की बीवी क़तूरा से उनके एक बेटे पैदा हुए जिनका नाम मदयान था। उन्हीं की संतान यहाँ आबाद हुई, और उन्हीं के नाम पर इस शहर को "मदयन" कहा गया।
इन्हीं में हज़रत इब्राहीम के लगभग 5 सौ साल बाद हज़रत शुऐब पैदा हुए। उस समय तक मदयन की क़ौम में काफी बिगाड़ आ चुका था। अल्लाह तआला ने हज़रत शुऐब को नबूवत अता की और उन्हें हुक्म दिया कि वे हज़रत इब्राहीम की इस बिगड़ी हुई औलाद को हक़ का पैग़ाम सुनाएँ।
अब यह सवाल पैदा होता है कि मदयन की क़ौम में कौन सी बुराई थी जिस की वजह से उन्हें यह चेतावनी दी गई कि "अपने आज के अच्छे हालात पर मत इतराओ, आने वाले समय में सख़्त अज़ाब आ सकता है"?
क़ुरआन के मुताबिक़, उनकी बुनियादी बुराई यह थी कि वे नाप-तौल में धोखाधड़ी करते थे, यानी जब खुद कुछ लेते तो पूरा-पूरा लेते और जब दूसरों को देते तो उसमें कमी कर देते। (7:85)
इस नैतिक गड़बड़ी को क़ुरआन ने एक और जगह पर और स्पष्टता से बयान किया है:
"बर्बादी है उन लोगों के लिए जो तौलने में कमी करते हैं। जिनका हाल यह होता है कि जब वे दूसरों से कुछ लेते हैं तो पूरा-पूरा लेते हैं, लेकिन जब उन्हें दूसरों को देना होता है — नाप या तौलकर — तो वे उसमें घटा देते हैं। क्या उन्हें यह मालूम नहीं कि एक दिन ऐसा आएगा जब उन्हें उठाकर (हिसाब के लिए) लाया जाएगा? उस दिन जब सारे लोग अल्लाह, मालिक-ए-कायनात के सामने खड़े होंगे?" (83:1-6)
“अपने लिए भरपूर लेना और दूसरों को देने में कमी करना” – एक वो है जो दुकानदारों के यहाँ मिलता है। जो दुकानदार खुद के लिए तो नाप और तौल में ज़्यादा लेने की कोशिश करता है, लेकिन जब किसी ग्राहक को कुछ देना होता है, तो किसी न किसी बहाने उसे कम देने की कोशिश करता है — जैसे नाप-तौल में गड़बड़ी करना, मिलावट करना या घटिया चीज़ देना — तो ऐसा इंसान अल्लाह के नज़दीक मलऊन (शापित) है और उसकी पूरी कमाई हराम की है। चाहे वह दुनिया में कितना ही मुनाफ़ा कमा ले, लेकिन आख़िरत के दिन वह सबसे बड़े घाटे में होगा।
लेकिन यह सोच केवल व्यापार तक सीमित नहीं है। यह एक ज़ेहनी रवैया है, जो इंसानी ताल्लुक़ात (रिश्तों) के हर पहलू पर लागू होता है। साहिब-ए-रूहुल मआनी (प्रसिद्ध व्याख्याकार) लिखते हैं:
"जो अहले-इल्म (विद्वान) अपने समकालीन विद्वानों के आदर सम्मान का हक़ अदा नहीं करते, वे भी इस आयत के दायरे में आते हैं।"
इसी तरह की सभी सूरतों पर इस आयत को लागू किया जा सकता है, जब एक इंसान अपने लिए तो यह चाहता है कि वह अपने असली हक़ से भी ज़्यादा हासिल कर ले, लेकिन दूसरे को उसका वाजिब हक़ भी नहीं देना चाहता।